Wednesday, December 31, 2008

शुक्रिया तेरा...



तुम आये और तुम चले भी गए,
कितने ही रंग व सपने दे गए....
आज समेट रही हूँ सब उन लमहों को,
जिनमें जिंदगी के मायने बदल गए....
सीखा उड़ना तुमसे, जब उतरे ज़मीन पर,
तुम दूर क्षितिज में जाके कहीं ढल गए....
इक पल को ही, आना मगर मेरे चौखट पे,
हम ठीक से तेरा शुक्रिया अदा करना जो भूल गए.......

Monday, December 29, 2008

मेरा एक ही सवाल



चलते-चलते राह में यूँ अचानक से तेरा हाथ छूट जाना,
कैसे कहूँ कि कितना मुश्किल है अब एक कदम भी चल पाना....

हर वो पल की कहानियों को दुहराती है
जब ये रास्तों की तन्हाई;
धुंधली-सी हो जाती है आँखें
पर होती न, तो वो तेरी परछाई;

याद करती हूँ सब वो बातें,
न होता तो भूल पाना....

बाँट के दो लमहों को
छीन तो ली मेरी जिंदगानी,
नज़रें उठती नहीं अब देखने को
सारी फिजां जैसी वीरानी;

तुमको तो मिल गयी अपनी कहानी,
अपना फ़साना बना अधूरा फ़साना....

माना.. किया न तुमने कोई था वादा,
सब है मेरी मन की बातें.
पूछती हूँ सिर्फ एक ही सवाल
मेरी जगह रहकर तुम आखिर क्या कर पाते.

कहना कितना है आसां, जाना तुमसे आज,
मुझसे भी जान लेते, कैसा होता है चुप रह जाना....

Thursday, August 7, 2008

मेरी खामोशी!!



आज भी
मेरे कमरे में, वो
हमेशा की तरह झाँक रही है.
मेरे सुख व दुःख,
आक्रोश व पश्चात्ताप,
जय व पराजय,
जैसे हर क्षण का सदियों से, वो
हिसाब रख रही है.
कभी तुम्हें-भूल मुझे सुलाने की प्रयत्न,
तो कभी तुम्हारी-ही याद में
जगे रहने की मनुहार करती है वो.
एक क्षण को तो तुमसे ही
दूर कर जाती है वो,
तो दूसरे ही क्षण तुम्हारी
ही बातें गुनगुनाती रहती है वो.
मेरे सबसे करीब रहते हुए भी
क्यूँ तुम इतनी दूर रहती हो,
कभी बुरी, तो कभी इतनी अच्छी क्यूँ लगती हो.
"अमावस की रात में भी रोशनी के दायरें मिलते हैं,
चाँद नहीं तो क्या हुआ, सितारें भी चमकते हैं"- यूँ कहते हुए
तुम कितना मुझे समझाती हो.
हाँ! मेरी खामोशी,
मेरा कितना ख्याल तुम रखती हो.

Friday, August 1, 2008

सबब



हर रात,
तुझे मैं याद करती हूँ.
खिड़कियों से बाहर आसमान
को देखते हुए सोचती हूँ-
कहीं तू भी तो नहीं
याद कर रहा होगा मुझे इस तरह,
जाने किन परेशानियों से
जूझ रहा होगा तू अकेला,किस तरह.
एक ख्याल फिर ये भी चला आता है-
कि तुझसे बातें ही कर लूँ,
मन को तसल्ली सा होता है, जब भी
तेरे चेहरे के शिकन को कम होता देख लूँ.
तब ही जाने कहाँ से, कोई झोंका
यादों का मुझे छू के चला जाता है,
-तेरी परेशानियों का सबब मैं तो नहीं,
कुछ ऐसा ही, मेरे इर्द-गिर्द गुनगुनाते हुए,
एक और काँटा
हर रात,
मेरे दामन में चुभो के चला जाता है...

Monday, July 28, 2008

मन का अन्धकार



मन के एक कोने में
बसी थी वो,
दिखने में, माथे की बिंदी
जितनी ही थी वो.
रंग की ऐसी काली थी वो,
जैसे रोशनी, उसके मुख की निवाली हो.
मेरे मन के इर्द-गिर्द घुमती थी वो,
जैसे हर किसी से नाता बनाती थी वो.
धीरे-धीरे आकार में बढ़ने
लगी थी वो,
इतनी कि, अब मन में कोई भी
रहता नहीं, रहती तो सिर्फ वो.
न सुख के पल,
न दुःख के पल,
न मीठी यादें,
न कड़वी यादें,
न दो-चार आँसू,
न कोई मुस्कुराहटें,
न अपनों की तस्वीर,
और न ही सुनहरी कोई
आशा की लकीर.
कल तक मुझ-में ही समायी हुई थी ये,
आज ये मेरा मन भी कम पड़ रहा है.
देखो ना.. ये मेरे मन का अन्धकार
शन्नै:-शन्नै: अब बाहर भी फ़ैल रहा है.....

Monday, April 28, 2008

Isn’t it strange..?



Isn’t it strange..?
When someone is snatchin’ a distance of few years
from your life-path,
and, you’re still happy with
the rest of the life.

Isn’t it strange..?
When someone is takin’ all your breaths away
causin’ you die slowly and lonely,
and, you’re still feeling alive,
just by thinking of him.

Isn’t it strange..?
When someone is makin’ you aloof
from rest ot the world,
and, you’re still fillin’ up your days
with the moments all named to him.

Isn’t it strange..?
When someone is not lovin’ you anymore,
and, you’re still waitin’ for him
to the end of your life.

Yeah…love is always strange,
Especially, at the end of those
loving moments,
when everything belonging to you
is not meant for you…actually…..

Thursday, March 13, 2008

अच्छा नहीं लगता है....



सब कुछ तो सही है;
ऐसा कुछ भी तो नहीं,
जो मेरे जीवन में नहीं है;
फिर क्या है, जो मन को खलता है;
सोचती हूँ, क्या है वो
जो अच्छा नहीं लगता है..

होठों पर हंसी सँवार के
नयनों से तीव्र-प्रहार करना
अच्छा नहीं लगता है..

मधुर वचनों के तानों-बानों में
कटुता का रंग भरना
अच्छा नहीं लगता है..

शत्रुओं-सा व्यवहार करके
मित्रता का ढोंग रचना
अच्छा नहीं लगता है..

मरहम सदृश दो प्रेम भरे शब्द की जगह
छल का दंश चुभोना
अच्छा नहीं लगता है..

वो मानवता का दंभ भर के
पाषानों की भाषा बोलना
अच्छा नहीं लगता है..

शब्दों में भरपूर स्नेह जता के
मन में रिक्तता का घर कर जाना
अच्छा नहीं लगता है..

रिश्तों में क्लेश की आग लगा के
शीतलता को महसूस करना
अच्छा नहीं लगता है..

हाँ, मुझे हर वो कुविचार
जो स्वयं को स्वीकार नहीं
मगर दूसरों पर परखना
अच्छा नहीं लगता है..

और अमृत-से इस जीवनधार में
चुपचाप-सी, यूँ हर विष का पान करना
'वंदना' को सचमुच में
अच्छा नहीं लगता है....

Thursday, February 7, 2008

मेरी एक सहेली है....



मेरी एक सहेली है,
बहुत अच्छी !!
बहुत वर्षों के बाद,
अब जाकर
मुझको यहाँ मिली है.

मेरी एक सहेली है,
बिलकुल मेरे जैसी !!
चंचल तो कभी शांत-सी,
सिर-से-पाँव तक जैसे
मेरे रंग में ही ढली है.

मेरी एक सहेली है,
भावुक-सी !!
छुई-मुई की तरह कोमल-सी,
तो ओस की बूंद की तरह निर्मल-सी,
कभी नीम तो कभी मिसरी की डली है..

मेरी एक सहेली है,
मेरी हमराज़-सी !!
मेरे भावनाओं में बहनेवाली,
मेरे अंतर्मन में प्रकाश करनेवाली,
मुझसे मुझको ही चुराती,
व मुझे ही सौंप जाती,
एक सुखद स्वपन की भांति, अबूझ पहेली है..

मेरी एक सहेली है,
मेरी परछाई-सी !!
हज़ारों की भीड़ में मुझे ढूँढ़ निकालनेवाली,
जग से लड़ मेरी परवाह करनेवाली,
मुझे अपना समय देकर भी
वो मुझ-जैसी ही अकेली है..

मेरी एक सहेली है.....

Wednesday, February 6, 2008

यह कैसी दीवार मनों के बीच..??



कैसे मिलाऊं अब मैं तुमसे
अपने मन की भावनाओं से,
और कैसे झट-से मिल लूँ
तेरी अकेली-सी इच्छाओं से;

यह कैसा सुकून
घुट-घुट कर रह जाने में,
यह कैसा जश्न
फिर-से अकेला बन जाने में;

यह कैसी दीवार बन रही है,
मनों के बीच..

इक ईंट रखी मैंने
तेरे ना बताने की तर्ज़ पर,
इक ईंट तूने रखी
अपनी हठधर्मिता को निभाने पर;

दूसरी रखी मैंने, सिर्फ
अपने अहम् को सर्वोपरि बनाने पर,
तो तीसरी तूने भी रख दी
इसी क्रमवार को आगे बढाने पर;

यह कैसी दीवार बन रही है,
मनों के बीच..

गलती तेरी मेरी ही सही
लाभ क्यूँ उठाते पराये है?
यह चून-लेप और कीचड़, इन्होंने ही
तो इन ईंटों पर लगाये है;

मान भी जाओ अब तुम तो
मैं भी जिद से हार रही हूँ,
गीली है मिटटी अभी भी, मत कहना!
-पूरी तरह से सख्त होने का इंतज़ार कर रही हूँ;

यह कैसी दीवार बन रही है
मनों के बीच....

Saturday, February 2, 2008

जीना सिखा दो..



उड़ते हुए परिंदों को रोक कर
हमने पूछा था एक बार-
हमको भी उड़ना सिखा दो,
गगन में चलना सिखा दो,
यूं चहकना, फड़कना सिखा दो,
उड़ते हुए परिंदों को रोक कर
हमने पूछा था एक बार....

धूप में जलते हुए भी हँसना सिखा दो,
वो अपने से बडे विशालकाय
उस गिध्द की नज़रों से बचना सिखा दो,
वो ऊँचाइयों से नीचे उतरना सिखा दो,
उड़ते हुए परिंदों को रोक कर
हमने पूछा था एक बार....

वो सर्द हवाओं को झेलना सिखा दो,
वो हर मौसम में मुस्कुराना सिखा दो,
वो बिन दानों पे भी जीना सिखा दो,
उड़ते हुए परिंदों को रोक कर
हमने पूछा था एक बार....

वो डर के भी निडर बनना सिखा दो,
चाहे हो वो ऊँचा पर्वत या कोई समंदर
हर मुश्किल से लड़ना सिखा दो,
कि हमको भी अपनी तरह जीना सिखा दो,
उड़ते हुए परिंदों को रोक कर
हमने पूछा था एक बार....