Thursday, March 31, 2011

क्या लिखूं?


क्या लिखूं? कि लिख देने के बाद यह लगे कि सब कुछ लिख दिया अब तो. बाकी तो फिर भी रह जाती है जिंदगी अनस्याही – सी. जो स्याही में डूब गए, मानो गंगा तर गए. पिछले चार सालों से वही एक रास्ता अपनाती हूँ, मेरे साइकिल के चक्कों को तो एक - एक कंकड़ों से मोहब्बत भी हो गई होगी. वो जान जाते है कि कब धीमे हो जाना है, कब गढ्ढे आयेंगे और कब कोई कील उन्हें चुभो सकती हैं, कौन-से वृक्ष के छाया में वो खड़े रहने के हक़दार है. यहाँ तक कि उन्हें अब तो शायद वापसी का भी अच्छी तरह से आभास होने लगा है. आज जब साइकिल के ताले को ठीक से लगाने की कोशिश की तो पाया इन्हें भी आदत हो चुकी है, टेढ़े लगे रहने की, और मुझे सोचने की. २ मिनट के रास्ते में सैंकडों लोग दीखते है, मगर सब वही, वैसे ही, बस कुछ रंगों के व जगहों के भेदभाव के साथ. वो एस.एन.(सरोजिनी नायडू) के गेट के पास खड़े और बतियाते लोग कभी कम नहीं होते. आज वो जो लड़की नीले रंग के छाते के साथ किसी से फोन पे बात कर रही थी, उसे भी रोज ही देखती हूँ और रोज ही यही सोचती हूँ कि इसे भी तो इंजीनियरिंग ड्राईंग पढ़ाया था. मुख्य चौराहे पर आकर वो २-४ सिक्यूरिटी गार्ड्स के चेहरें याद आने लगते हैं कि उनमें से कोई एक फिर वहाँ खड़ा होगा तो घूम कर जाना होगा L. अगर कोई भी गार्ड नहीं दीखता तो सबसे पहले घड़ी पे नज़र जाती, अच्छा! अभी तो क्लास का समय हैं, अच्छा हुआ कि इस समय पर आये, अब मैं शॉर्ट कट से जा सकती हूँ J. डिपार्टमेंट में आने से पहले मुझे उस माली की भी याद आती है, उसे कभी काम करते वक्त देखा तो नहीं है, क्यूंकि मैं अक्सर उसके विश्राम के समय पर पहुँचती हूँ. मगर वो प्यार से एक बराबर किया हुआ मिटटी का रंग और वो धागे से भी ज्यादा सीधा मिटटी का हर कोना, साथ में कतार में खड़े जैसे उस माली की हर आज्ञा का पालन करते हुए नन्हे-नन्हे से गेंदे के पौधे, जिसमे कलियाँ आई भी नहीं है मगर उस माली की नज़रों से देखने पर पता चल जाता है कि किसमें कौन – से रंग का फूल आनेवाला है, सब उस माली का ही परिचय देते है. बहुत दिनों से अपने बाबा को देखी नहीं हूँ. बाबा यही नाम तो दिया था जब पहली बार उस बरगद के पेड़ को देखा था. पता नहीं अब कैसा होगा? मुझे याद भी करता होगा कि नहीं? मैं भी इतने दिनों से उसे सोची नहीं. भूलती तो नहीं हूँ, बस याद करना भूल जाती हूँ. मुझे दौड़ना बिलकुल पसंद नहीं, और तब तो बिलकुल भी नहीं जब एक – एक शिराओं में दर्द चिल्लाने लगे कि अब तो हमें बाहर निकालो. मगर ऊपर वाले खाने, जिसे दिमाग कहते है लोग, में से एक जोर की आवाज़ आती है कि कितना है तुममें दम? जैसे मुझपे हारने का व्यंग्य रच रही हो. यह आवाज़ इतनी झन्नाटेदार होती है कि मैं बहुदल में सम्मिलित सभी दर्द को नकारते हुए अपने आपको हारने से बचाने लगती हूँ. मगर कब तक? उस मिटटी के टीले तक आते-आते तो मैं रुक जाती हूँ, तब भूल जाती हूँ कि मुझे हारने से क्षोभ होता है. तब शायद जीत - हार के कशमकश से ऊपर उठ जाती हूंगी, तब मेरा रुख उस टीले की ओर हो जाता है. उस पर पैर रखकर मैं दर्द को बाहर निकालने की कोशिश करती हूँ, थोड़ी देर पहले ही जिनकी आवाजों को मैंने अनसुना किया था. रात को जब बिस्तर से अचानक उठती हूँ तो पता चलता है कि अनसुने कर दिए जाने के कारण नाराज़ हुए कुछ दर्द के कतरे अब भी पैरों में बिलबिला रहे होते है. तब उन्हें सहला कर ही मैं मना सकती थी. सुबह होते हुए तो कभी ही देखती हूँ, खिड़की पर पर्दा बराबर लगे रहता है, मैंने अपने साथ कमरे के बाकी रह्नुमों को भी बाहर झाँकने के लिए मनाही कर रखी है. सूरज अब पिछले जनम का दोस्त - सा लगता है, जो रोज दरवाजा खटखटाता तो है, इस आस में कि शायद आज कमरे में पड़े किसी एक को उसकी याद आ जायेगी तो दोस्ताना पूरा हो ! मगर जो रात के बजाय सुबह में क्लोरोफॉर्म सूंघने के आदी हो गए हो, उसे सूरज की शक्ल किसी प्लास्टिक के थैले में भरे पानी जैसी लगती होगी, पकड़ना चाहो तो पता नहीं किसकी शकल बना ले. इसलिए भी यह दोस्ताना अधूरा रह जाता होगा बार - बार. और जब वो पानी वाला प्लास्टिक का थैला ऊपर चढ़ जाता है तो, पहचान भी लूँ तो क्या फायदा? तब उसके या मेरे होठों की मुस्कराहट, जो बिछड़े साथियों के पहचान लिए जाने पर आती है, दोनों में से किसी को भी नहीं दीखती होगी. नहीं मिल पाने गम भी हम कितने अच्छे से छिपा लेते है, वो इतनी रौशनी भर देता है कि आँखें खुलती भी नहीं और मैं सिर पर टोपी लगा के नज़रें चुरा के निकल जाती हूँ. बहाने हज़ार मिल जाते है, दलीलों को सच बनाने के लिए, जैसे मैं लिखती हूँ यह कह कर कि लिख लूँ तो जी लेती हूँ. जीने के लिए लिखना आवश्यक है क्या? ‘नहीं’ उत्तर का उत्तर तो नहीं मिला मुझे आज तक, इसलिए लिखती चली आई हूँ. यदि आवश्यक है भी तो फिर सोचने लगती हूँ कि क्या लिखूं? कि जी सकूँ.

Sunday, March 20, 2011

तुम.....


जैसे कुछ पन्ने उड़ कर
कभी वापस आते नहीं,
तुम भी किस्तों में
उड़ जाते तो अच्छा रहता.

तुम इतने गहरे व तीखे
हो चले हो कि
मन की गिरहें भी काट लूँ, तो भी
तुम्हारा जाना अब संभव नहीं लगता.

गीली मिटटी –सा मेरा मन
ढले भी तो सिर्फ तेरे सांचे में;
मैं सूख कर भी ढूँढूं तुम्हें,
बनते दरारों के रेखाजाल में.

कोई पीपल - सा बीज
मन में बो गए हो तुम;
यादें आकर सींचती रही,
धीरे-धीरे तुम बढ़ने लगे हो मुझमें.

मैं तंग आ गई हूँ अब तुमसे
तुम चले जाओ दूर मुझसे;
इक घुटन – सी निकलती आह
कि क्यूँ तुम आए मेरे पास?

मत आओ मुझे बहलाने,
जब होऊं तुम्हें लेकर मैं उदास;
तुम जैसे पलट के फिर मुस्काते,
मानो मेरे हर सवालों का तुम जवाब.