Thursday, August 20, 2009

विश्वासघाती

सवेरे-से कटोरी-भर चावल
रखे थे मैंने,
कोई तो उन्हें चुगने आएगा;
डिब्बे में बंद सड़ रहे थे दाने,
किसी का तो भला हो जायेगा.
पर नहीं..
अब तो मैना मुझसे भी ज्यादा
सयानी हो गई है;
उनकी आंखों में अब अपनों के लिए भी
खौफ़ पैदा हो गई है.
चलो कोई नहीं..
सबकी अपनी इच्छा;
अब तो दुनिया भी ऐसी ही हो चली है,
शायद इसकी कहानी भी यही हो गई है.
सांझ ढलते दो मैना
दिख ही गए, घास में कुछ चुन रही थी वो,
मैंने भी विश्वास का जाल फेंकना चाहा,
सो सारी कटोरी ही उडेल डाली;
डर मत! मैं भी धीरे से
विश्वास का पैबंद लगाने का प्रयत्न कर रही थी.
परन्तु..
उनका विश्वास मुझसे भी अधिक था,
उड़ के चली गई पासवाले बरामदे पर;
और छुप के ढूँढने लगी मुझ नासमझ को
कि इस बार कौन नया विश्वासघाती था.

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

sundar rachanaa!!

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

dhanyawad paramjeet ji!!!!

Vinay said...

प्रश्न का उत्तर बड़ा कठिन है, किन्तु रचना में प्रश्न भाव बहुत सुन्दरता से पिरोया गया है।
---
मानव मस्तिष्क पढ़ना संभव

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

vinay ji,
aur koi kahe na kahe, magar ab to aapke comments ka hamesha se intzaar rehta hai aur achcha bhi lagta hai aapke comments dekhne par.thanx!