कई पड़ावों से होकर जब ज़िन्दगी
तुम्हारे पास आई तो
एक बार को लगा था कि-
अब ठहरने की बारी है.
और सही भी तो है,
तुम जैसे मेरे चलनेवाले रस्तों पर
अपनी अंगुलियाँ फेर गए हो;
तुम्हारे निशान अब भी दीखते है,
जैसे मुझे इनकी रखवाली
करने को कह गए हो.
कभी-कभी तो लगता है,
तुम बचपन वाली लुका-छिपी का खेल
फिर से खेला रहे हो;
मुझे छिपने को कह तुम जैसे
चोर बनके ढूँढने आ रहे हो.
काश मैं चोर बनी होती तो
तुम्हें जरूर से ढूंढ लेती;
तुम्हारे इंतज़ार में मैं
अब तक यहाँ छिपी बैठी नहीं रहती.
बचपन में कभी चोर नहीं बनी थी न,
हर बार मैं बहाने बनाया करती थी;
काश पता होता कि यूँ किसी के
आने का इंतज़ार इतना रुलाता है,
तो हर बार मैं और सिर्फ मैं ही
चोर बना करती.
तुम्हें रुलाने के बारी
याद दिलाने के लिए नहीं,
तुम्हें इस अहसास से कोसों दूर
रख मैं हर बार चोर बनकर कहती
कि बस बहुत हुआ यह खेल,
अब घर को चलते है.
7 comments:
अतिसुन्दर भावाव्यक्ति , बधाई के पात्र है
काश सबके दिल में इश्वर का बसेरा हो जाए आप ही की तरह
बहुत बहुत बहुत ही खूबसूरत और सार्थक अभिव्यक्ति।
बहुत हुई लुका छिपी ...
चलो अब घर चलते हैं ...
अच्छी लगी कविता ..!
बहुत हुई लुका छिपी ...
चलो अब घर चलते हैं ...
वाह कहने का अन्दाज निराला है..
बहुत सुन्दर
सराहना के लिए आप सबों का धन्यवाद्!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
बेहद मीठा खयाल है...क्या इससे मीठा कुछ हो सकता है। शायद नहीं...बिलकुल नहीं...बेहद उम्दा स्वाद था ये कविता शायद जिंदगी का...
dharmendrabchouhan@gmail.com
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