“ बेबा .............मेरा मूड ठीक नहीं है. तुम जल्दी आओ, अभी के अभी.”
फोन के दूसरी तरफ से आवाज़ आई-- “ बेबा, अभी तो ११ बजने में टाइम है. और मुझे नहाना भी है. वैसे मूड क्यूँ खराब है? क्या हुआ बेबा? कोई मेल-वेल आया है क्या?”
“ नहीं कुछ नहीं.... मगर मैं कुछ नहीं जानती. ११ बजे तक वेट नहीं कर सकते. अच्छा तुम नहा कर जल्दी-से १५ मिनट में पहुँचो. हम्म ..... मैं भी नहा लेती हूँ. आज गर्मी बहुत है. ओके?”
“अच्छा बेबा ! मैं आने से पहले एक मिस कॉल कर दूँगा. तुम निकल जाना फिर.”-- उसने कहा.
“ठीक है’-- इतना कहते ही उसने भी फोन रख दिया था. मैं भी नहाने चली गयी.
मुझे ज्यादा समय नहीं लगा था. तैयार होके मिस कॉल का इंतज़ार करने लगी. इतना समय काफी था, सोच में डूब जाने के लिए. उससे मिले हुए बस कुछ महीने ही हुए है. अब भी याद है जब मैंने अपने रिसर्च से और किसी और से भी भागने के लिए कॉलेज के तरफ से ले जानेवाले पर्वतारोहण में अपना भी नाम बढ़-चढ़ दे दिया था. ऐसे तो कहने को यहाँ लड़कियां लड़कों के बराबर चला करती है. मगर पर्वतारोहण के नाम पर मैं ही अकेली जिमखाना गई थी, फिटनेस टेस्ट के लिए. मुझे अकेला देख एक सदस्य ने तो मुझसे न कहलवाने के लिए समझाना भी शुरू कर दिया. पर मैं तो मैं ही थी-- “ नहीं मुझे जाना है तो जाना है, आप अपना देख लो , मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है, चाहे मैं अकेली लड़की ही क्यूँ न हो.”- ऐसा कह कर मानो मैं कोई भूचाल की घोषणा कर आई थी. मैं रोज फोन करके उन्हें पुछा करती थी कि मुझे सेलेक्ट किया गया है कि नहीं?. पर्वतारोहण के दो दिन पहले मैंने अपनी एक खास सहेली से अनजाने में ही पूछा कि वो चलेगी मेरे साथ, चूँकि वो एकदम छुई-मुई थी, इसलिए उससे हाँ की उम्मीद न के बराबर ही थी- मेरे पूछने से पहले की उम्मीद. उसकी ‘हाँ’ के बाद तो बाकी सब भी राज़ी हो गए. और आनन-फानन में हमदोनों ने अच्छी-खासी खरीददारी कर डाली.
जब हम बस के पास पहुचे जो हमें रेलवे स्टेशन तक पहुँचानेवाली थी, तो सबसे लेट-लतीफ़ हम ही थे. सारे बी.टेक. के फर्स्ट और सेकेंड इयर के छात्र नज़र आ रहे थे. उनमें से कई सिर बस की खिड़कियों के बाहर दिख रहे थे, कुछ की नज़रें मुझे जानी हुई-सी लग रही थी ( शायद उनमें-से कईयों को मैंने इंजीनियरिंग ड्राईंग पढाया था ) और हम रस्सियों ( ट्रेक के बाद ही हमें यह ज्ञानार्जन हुआ कि महिला रिसर्च स्कॉलर को ‘रस्सी’ व पुरुष रिसर्च स्कॉलर को ‘रस्सा’ की उपाधि मिलती है. ) की नज़रें उन दो बन्दों को ढूंढ रही थी जिनसे हमारी अब तक की बात-चीत हुई थी ट्रिप के नाम पर. उनमें से एक दिखा भी, मगर कुछ हडबडाया-सा. हमारे पास आ के एक लिस्ट थमा गया सबके नामों की और उनके मोबाइल नंबरों की. ट्रिप के बारे में पूरी बात कर लेने के बाद मैं उससे अंकित के बारे में पूछने लगी. वो मुझे एक पल के लिए हैरान-सा होता हुआ देखा और धीरे-से कहा—“ मैं ही अंकित हूँ.” अब सबके हँसने की बारी थी. अच्छा हुआ! वो उस ट्रिप में नहीं था, क्यूँकि उसके बाद मुझे बहुत शर्म आ रही थी.
मनीष नाम का यह बन्दा उन सबमें सीनियर था, सुपर सीनियर!, चूँकि वो पाँचवें साल का विद्यार्थी था. उसी पर सबकी जिम्मेवारी थी, सो हमारी भी. थोड़ा अकड़ू थोड़ा मिलनसार, कुल मिला के ठीक ही था, उस समय तक.
रेलवे स्टेशन से बाकी लोगों ने भी बातें करनी शुरू कर दी थी. कम-से-कम इंजीनियरिंग ड्राइंग की कक्षा वाले छात्र तो ‘मैम- मैम’ कह के बोलने लगे थे. उसके बाद का सफर भी कम यादगार नहीं था, ज़ोरों की बारिश, लोकल वाली ट्रेन में नो चांस, एक्सप्रेस में टी.टी. की धरपकड़, थोड़ा फाईन भी ;-). फिर हावड़ा में भी आगे की ट्रेन छूटते-छूटते बची थी. पूरी तरह से सामान व्यवस्थित करने के साथ-साथ हम तीनों भी एक-दूसरे को जानने लगे थे—मैं, नीतू और वो, उस समय के लिए तो मनीष ही नाम था उसका.
सोने से पहले उसने मुझसे काफी सारी बातें की, यह भी कि तुम्हारी उम्र क्या है? मुझे हंसी आई थी उसके इस सवाल पर, जिसे पूछते समय उसे कुछ अजीब नहीं लगा था, लेकिन जवाब सुन कर जरूर लगा था-- “क्या???? नहीं .....ओके ....लगता नहीं हैं देखकर.” फिर उसने कहा,--“ पता है, मुझे ऐसा लग रहा है कि ट्रिप अच्छी होनेवाली है.” मैंने भी हामी भरी मुस्कुराते हुए और पूछा--“ ऐसा क्यूँ लगता है?”. “बस लग रहा है.”--और वो कहीं खो गया. मुझे पता था कि वो कहाँ खोने लगा है, मैं भी तो अपनी दुनिया में खो जाया करती हूँ.
उसके बाद हल्द्वानी, फिर बागेश्वर, धाकुरी, खाती और भी कई पड़ाव-- पिंडारी ग्लेशियर तक, जिनमें लगता है अब भी अपने निशान मौजूद होगे, और उन निशानों की मौजूदगी तलाशने को मन दोबारा जाने के लिए मचल उठता है अब भी, अकसर. सबके साथ मस्ती करते हुए मैं एक पल को सब कुछ भूल अपनी नौटंकी बाज़ी शुरू कर देती, जो उम्र का लिहाज़ करना बिलकुल भी नहीं जानती थी, तो दूसरे पल ही किसी को याद कर उन बेजुबां वादियों को उस न याद आने चाहिए वाले का नाम बोलना सिखलाती. “ सीख ले मेरी तरह उसका नाम, वापसी में सुनूंगी जरूर तुम सबसे.”-- यही कुछ बडबडाते हुए मैं फिर आगे बढ़ जाती.
ग्रुप में भी हम तीनों एक साथ हो गए थे. फिर तो पूरी ट्रिप मस्ती की हम तीनों ने. मगर अपनी-अपनी तरह से. जैसे कि --
“ मुझे यहाँ बैठना है “. तो मन्नू कहता – “ नहीं यहाँ नीतू बैठेगी ”.
“ मुझे और सोना है ”. मैं चिल्ला-चिल्ला के रंगोली के सारे गाने, जितने भी याद होते, सभी को सातों सुरों के अलावे बाकी सभी सुर में अलापती जब तक कि वो जाग न जाता.
“ अरे बाबा, अब चलिए ना, क्यूँ लड़ रहे है इतना? “—ये नीतू थी.
फिर इसी तरह मजे करते हुए ग्लेशियर पहुँचे, ग्लेशियर के मज़े लिए और फिर सब वापस अपने-अपने घरों की ओर चल दिए. मैं और नीतू वापस खडगपुर आ गए थे. मनीष .... नहीं मन्नू, वापसी तक में उसका पुन:नामकरण कर दिया गया था, इंटर्नशिप के लिए पुणे चला गया. फोन पे अकसर कहा करता था कि मिस करता हूँ. और मैं रोज उसे मिस करवाया करती थी ताकि जल्दी से दो महीने बीते और हम फिर से मस्ती करें.
“ आई ऍम ऑसम ”—यह उसका अपना अन्दाजें-बयां था हर बात पर, जिस पर हम खूब हँसा करते थे, मगर वो गंभीरता से ही कहा करता था, जैसे कि सुपरमैन का अपनेआप से सुपरमैन कहना, शायद वैसा ही.
“ हे बेब्स! “—दो महीने के बाद कैम्पस वापस आने पर उसने मुझे देखकर कहा.
“ यक्क्क.....बेब्स मत बोलो.” -- पता नहीं मुझे ये शब्द आज तक कभी कानों सुहाए नहीं.
“ ओके.... हे बेबी! .... ये चलेगा?”-- उससे तो बेहतर है यह सोच को हाँ बोल तो दिए मगर मुझे गलती से बेबी सुनना भी पसंद नहीं था. सोचा आज ही बोलेगा, उसके बाद नहीं. मगर उसके बेबी बोलने का सिलसिला तो जैसे शुरू हुआ था. एक दिन मैंने गुस्से में आकर उसे कह दिया – “ तुम्म्म ..... बेबा.” उसकी प्रश्नवाचक निगाहों को अपनी खुशी के पताके से लहरा के मैंने फिर कहा – “ जैसे मैं बेबी वैसे तुम बेबा.” उसके बाद से तो ‘बेबा’ बोलना ऐसे शुरू हुआ कि वह भी अब मुझे बेबा ही बुलाने लगा है.
उम्र में काफी छोटे होने के बावजूद भी वो मेरा अब अच्छा दोस्त बन चुका है. हालांकि वो अब भी मुझसे बड़ा और ज्यादा समझदार होने के लिए मुझसे झगड़ा, चिल्लाना, बात-बात पर किसी हिमालयन वाले बाबा जैसे महाचिन्तक की तरह मुझे समझाना, सब करता है और फिर भी मेरे चुप रहने पर ‘मुझसे झगड़ा करो न’- की डिमांड करता है. मैं हँस देती कि जाने क्या रिश्ता है?
आज पता नहीं कहाँ से मन में सनक आ गयी कि ये बेबा शब्द दुनिया के अर्थपूर्ण शब्दों की शब्दकोष में जगह रखता भी है कि नहीं? पता नहीं मुझे इससे पहले यह सवाल दिमाग में क्यूँ नहीं आया? गूगल महाराज तो अब सबके देवता बन गए है तो मेरे भी. बस टाइप किया और ज्यादा खोजने की जरूरत नहीं पड़ी. दो ही लिंक मिले काम के, एक में बेबा किसी जगह का नाम था और दूसरा - “ Building and Enhancing Bonding and Attachment “, किसी संस्था का नाम था ये. मैं फिर से हँस दी कि यही तो........रिश्ता है ! और जैसे गाना बजने लगा हो, मोबाइल के बजने जैसा.
“ बेबा कॉलिंग ”-- उसका मिस कॉल आता है...........
5 comments:
बहुत सुन्दर रचना| | धन्यवाद|
बहुत सुन्दर रचना
जी पढ़ने के लिए धन्यवाद!
एक मेरी भी ट्रिप रही है, अच्छी सी थोड़ी अलग सी..उसकी कुछ यादें ताजा हुई इसे पढ़ने के बाद.
और चलिए बेबा भी सही और उसका माने भी अच्छा लगा जो गूगल बाबा ने सुझाया -
Building and Enhancing Bonding and Attachment
चलते चलते आपके ब्लॉग की तस्वीर की तारीफ करना चाहूँगा...बहुत ज्यादा अच्छी लगी मुझे. :)
अभि जी ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद,आते रहिएगा. यह फोटो मेरे एक फोटोग्राफर मित्र ने लिया था, जो कि मुझे भी बेहद पसंद है.
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