Tuesday, December 1, 2009

ये मन भी न कितना अजीब है!

ये मन भी न कितना अजीब है!

हर पल को संजो-संजो कर
रखने की कोशिश करता है;
मगर कुछ पल बिखर जाए,
तो ही अच्छा रहता है.

जब ऐसे कई पल
मन में जमने लगते है;
तब टीस-टीस करती
हजारों ख्वाहिशें चुभने लगते है.

ये मन भी न कितना अजीब है!

जब देखो चुम्बक बन जाता है;
जिसे भूलने की कोशिश करती हूँ,
उसे ही कस कर पकड़ने लगता है.

कुछ यादें, नुकीले धार वाले
लोहे की कील की तरह होती है;
और मन इन कीलों की तरफ
बरबस-ही आकर्षित होने लगता है.

ये मन भी न कितना अजीब है!.

4 comments:

अनिल कान्त said...

सच कहा आपने मन भी कितना अजीब होता है
पर कहते हैं कि ज्यदातर ये मन सच फरमाता है
वो सच जो दिल कहना चाहता है, वो सच जिसे हम सुनकर भी उस पर दिमाग को हावी कर लेते हैं

हैं ना ये मन भी कितना अजीब होता है

M VERMA said...

कुछ यादें, नुकीले धार वाले
लोहे की कील की तरह होती है;
पर इस मन का क्या करें!! यह इस चुभन को संजोये रखना चाहता है.

बहुत ही अच्छी रचना.

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

anil ji, aapki baat se main bhi sahmat hun... par jyada sach bolna bhi achcha nahi hota naa....
;-)

dhanyawad verma ji!!!!!!!!

Anand Rathore said...

mann bada chaalbaaz hai...if u can control ur mind u can see light of ur soul..