नीली दीवार पर
आईने का चौकोरपन,
नहीं बाँध पाता
मेरे अंदर का खालीपन।
इस्त्री किए हुए
सभी कपड़ों के बीच,
मैं छुपा नहीं पाती
अपने मन का सच।
ये घड़ी की सुईयां
इतनी भी नहीं नश्तर,
कि फेंक सकूँ मैं
जो भी बचा मेरे अंदर।
एक टंगा लाल झोला या
गुच्छे चाबियों का सारा,
नहीं है तो बस वो कील जिसे
समझ सकूँ मन का सहारा।
कैलेंडर में दीखता तो है
मौसम का बदलना,
फिर क्यूँ रुका हुआ है,
यादों का यहाँ से जाना।
बिस्तर में तकिया
ही सोता है पूरी रात,
मैं चादर की सिलवटों में
लिखती अपने मन की बात।