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सिर्फ समय ही जब मिटा सकता है,
तो फिर बनाता क्यूँ है ये नाता.
क्यूँ उसकी ही मर्ज़ी पे चलता है,
जीवन का हर तिनका-तिनका.
जब उससे ही हर तार जुड़े हैं,
तो क्यूँ मेरे ही आँखों से है रिसता.
ख़ुशी में तो वो भी खुश होता होगा,
पर क्या दुःख में वो भी भागी है होता .
मालूम नहीं क्या समीकरण है उसके,
पर इक हँसता तो दूसरा क्यूँ है रोता.
जब-जब भीड़ बढ़ी जीवन में मेरे,
तो कण-कण में बस वो ही है दीखता.
जब चुप्पी की चादर ओढाई उसने,
क्या उसके किसी-भी कोने में वो है बसता.
कैसे मान लूँ मैं दुःख में उसकी भी साझेदारी,
जब स्वयं मन इसको नहीं है स्वीकारता.
जब उसकी ही कोई इक परछाई हूँ मैं,
तो फिर क्यूँ वो मेरी तरह नहीं है सोचता.....