Tuesday, January 6, 2009

कठपुतली मैं, बिन डोर...



कठपुतली तो बना दिया तुमने
सिखा भी दिया कैसे है हँसना...
दो पग चला के गिराते थे,
कि सीख जाऊं मैं फिर से चलना...
हर डोर को जब कस लिया अपने हाथों से,
इस मन को भी संगी बना लिया मीठी बातों से,
ढाल ही लिया जब अपने रंग में,
जब कर लिया पूरा अधिकार..
जब मन ने सच में चाहा
होना तुझ संग ही अंगीकार...
कौन-सी आंधी वो आई,
जो तोड़ गयी तुमसे जुड़ी हर डोर...
तुम दूर छिटक के बंध गए किस आँचल से,
कठपुतली ही रह गयी मैं, वो भी बिन डोर...

1 comment:

Amrendra Nath Tripathi said...

प्रिय युवा कवि यतीन्द्र मिश्र जी की कविता याद आ गयी ,
'' कठपुतलियाँ जो दिखा रहीं वह नकली है
जो छुपा रहीं वह असली है ! ''