Monday, January 5, 2009

ये टुकड़े अब किनके लिए है....



कोई कब्र पर भी आके मुंह फेरे खड़े हुए है,
इक हम है जो उनकी याद में कबसे ऐसे ही पड़े हुए है...
इक आंसू भी अब मेरे नाम का नहीं बचा,
हम उनकी तकदीर से अब ऐसे पिछड़ गए है...
वक़्त और मुसाफिर कहाँ किसी के होके रहे है,
जाने जिंदगी में वो कितने रास्ते बदलते रहे है...
रास्ता हूँ या मझधार मैं; जो मंजिल उनकी, उनका ही किनारा,
बीच में बस हम ही खड़े रह गए है...
जिंदा थे हम भी कभी; अब भी उनको पता नहीं,
मिटटी का ढेला ही समझकर बस खेलते रहे है...
वो तोड़ के वजूद जो मेरा अपनी राह चल दिए है
कहना उनसे ये टुकड़े अब किनके लिए है...

3 comments:

Anand Rathore said...

meri kabr ko na yun berukhi se dekh..
kasam se mar jaunga ek baar aur..

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

बहुत खूब राठौर जी!
आपके दो पंक्तियों ने सब ढेर कर दिया.

Anand Rathore said...

ढेर नहीं ..समेट दिया ज़ज्बातों को..