Thursday, November 8, 2007

दिनचर्या...



वो पानी में चेहरे को निहारना,
वो पेड़ों के इर्द-गिर्द मंडराना,
वो भंवरों का वही पुराना गीत गुनगुनाना,
वो चिड़ियों के संग कहकहे लगाना,
वो तितलियों के पीछे भागना,
और वो खुद की ही आवाज़ से डर कर
औंधे-मुँह गिरते-पड़ते भाग जाना,
वो रोशनी को मुठ्ठी में बंद करने की कोशिश करना,
वो अँधेरे से बचने के लिए आँखों को मींच लेना,
वो बादलों से दौड़ की बाजी लगाना,
वो सूरज से लुका-छिपी खेलना,
वो कच्चे रास्ते से झूमते हुए गुजरना,
वो लहराते दुपट्टे से हवा को ठेंगा दिखाना,
वो अम्मा को झूठी कहानी बताना,
अभी यहीं से आई, ये कह के फुर्र हो जाना,
वो बीच रास्ते में बाबा का दिख जाना,
वो इक पल को ठहरना और झट से भाग जाना,
वो दिनभर पहाड़ के उस टीले में
बैठ के अकेले जाने कितने सपने बुनना,
वो शाम होने तक
उन सपनो के पूरे होने का जैसे इंतज़ार करना,
वो सुस्त-से क़दमों से घर की ओर रुख करना,
वो चाँद का मुझ-पे मुस्कुराना, तारों का हँसना,
वो जुगनुओं की तानों को दर-किनार करना,
और वो अंत में चिढ़ के टेढ़े-मेढे मुँह बनाना,
ठहर जा इस रात भर, कल तो फिर है आना......

3 comments:

ई0 प्रशान्त कुमार said...

Your poems are really supervvvv & i liked 'em all, really nice

Prashant
www.kumarprashant.com

संजय भास्‍कर said...

दिल को छू रही है यह कविता .......... सत्य की बेहद करीब है ..........

Amrendra Nath Tripathi said...

एक हंसती खेलती दुपहरी जैसे पूरी दिनचर्या बन कर कविता बन जा रही हो !