अब कुछ भी सोचने के लिए
अपने लिए अब और कुछ करने के लिए.
मेरे पास वक़्त नहीं है,
अब सबकी बातें सुनने व समझने के लिए
उनकी जगह स्वयं को रख परखने-तौलने के लिए.
मेरे पास वक़्त नहीं है,
तुम्हारे मन को अब और पढ़ने के लिए
तुम्हारे लिए अंतहीन प्रतीक्षा के लिए भी.
हाँ, क्यूँकि कल रात मैंने वक़्त को
आँसुओं के कम्बल में लपेट कर
उसके हर कतरे को जला दिया है.
और बचे-खुचे, जो राख बन उड़-फिर रहे है,
उन पर अपनी मरी हुई इच्छाओं की
शोक-माला ओढ़ा दी है.
ताकि कोई भी देखे तो यही कहे कि-
बड़ा ही भला था ये वक़्त मगर
किस्मत की मार इसको भी लग गयी.
जिन आँखों में जनमा, वहीं वक़्त से पहले
आज इसकी मौत हो गयी.
इसलिए मेरे पास आज वक़्त नहीं है,
यादें है मगर कोई जिंदा वक़्त नहीं है.....
3 comments:
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .
सबसे पहले आपको धन्यवाद् मेरे blog में आने के लिए..... आपके comments मेरे लिए प्रेरणाप्रद है.
सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं.
आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.
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