जबसे देखा है
लाल चींटियों को,
उस मरे कीड़े को,
साथ ले जाते हुए:
तबसे सोचती हूँ,
कि कब आएगें
मेरे मन के
दरवाजे पे भी,
समय की चींटियाँ,
मन में जनमने
वाले कीड़े को
ले जाने के लिए,
कब तक उनके
मरने का और
इंतज़ार करेंगे?
ये कमबख्त
मरने का नाम
भी क्यूँ नहीं लेते?
कब मन
इनसे खाली
हो पाएगा?
और कब मैं
इन यादों को
ख़त्म कर दूँगी?
कब इनको भी
चींटे लग जाएगे?
10 comments:
यादों का कीड़ा न कभी मरता है न उसको चीटे खाते हैं........
वो कीड़ा हमें ही खा जाता है भीतर ही भीतर.......
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (19-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
कब इनको भी चींटे लग जाएगे?
man ke keero ko chinte nahi lag pate.. wo to aise hi idhar udhar bhagta rahta hai:)
सबको लेकर जाने वाला, एक न एक दिन आयेगा।
@ expression: आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ। पर कौन चाहता है कि ये कीड़ा हमें भीतर से खोखला कर दें?
@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक: इसे शामिल करने के लिए तहे दिल से धन्यवाद!।
@ मुकेश कुमार सिन्हा: सही में ये इतने भागते रहते है की पूछिए मत। वैसे हम भी इनके पीछे भागते रहते है।
@ प्रवीण पाण्डेय: वो एक दिन का इंतज़ार ज़िंदगी बन जाती है न!
ytharth se parichit karaya apne.....ati sundar
यादों के कीड़े मरने के साथ ही मरते हैं ... इनको चींटे नहीं लग पाते ...
बहुत सुन्दर ...
yado ke kide ko kabhi mar nahi sakta koi. . .sundar rachna
@ नासवा जी बिलकुल सही खा है
यादों के कीड़े मरने के साथ ही मरते हैं
संजय भास्कर
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