इस कहानी के पिछले भाग :
शुरूआती,
भाग-१,
भाग-२,
भाग-३,
भाग-४
ज़िन्दगी क्या है? क्या यही जिसे मैं जी रही हूँ? एक मुस्कान को अपने चेहरे में चिपका कर एक मरे हुए शख्स की मरने की खबर छुपाने के जैसा? ये वही मुस्कान है न, जिससे हाथ मिलाने के बाद से ही मुझे अवसाद भरा कोढ़ होना शुरू हुआ था. हाथ की उंगलियाँ गलते-गलते शायद अपने साथ स्पर्श की परिभाषा भी लेते चली गयी है. अब जब भी अपनी उँगलियों को छूती हूँ तो लगता है कि किसी अँधेरे कोठरी के भीतर रखे बरसों पुराने लोहे के जंग लगे बक्से को छू रही हूँ जैसे. जब कभी बक्से की कुण्डी से हाथ टकराते है तो फिर वही मुस्कान आ जाती है, तब जाके कुछ अंदाजा लगता है कि यह तो मेरा ही मन हैं. अब तो मन भी मन को पहचानने से इनकार करने लगा है या मन के अंदर चलनेवाले सोच की ताकत मन की ही नींव को तोड़ रही है. शायद इसे ही खुद से खुद को तबाह करना कहते है. सोच का क्या है? ऐसे ही चलते रहेगी, जैसे समय अपनी गति से गतियमान है. और यहाँ मेरे मन की तलहटी में भी एक खाई खुदी जा चुकी है निर्बाध गति से. ब्लैक होल क्या होता है? यह किताबों से बेहतर यहाँ समझ में आता है, जब मन में झाँकने की कोशिश करती हूँ तो लगता है कि ब्लैक होल इसी का कुछ अंश रहा होगा. एक अहसास को भी मैं इस खाई में फेंकना चाहती हूँ, जो तुम दे गए हो. मेरे हाथो की उँगलियाँ भी खतम हो रही है धीरे-धीरे, अब इनमें इन्हें सहेजने की ताकत नहीं रही. सोचती हूँ कि स्वयं ही इन हाथों से तुम्हें मुक्त कर दूँ तो उतना खराब नहीं लगेगा जितना कि पकड़ कर संजो के रखने की जद्दोजहत में, कहीं फिसल कर छूट जाने की दुर्घटना में. प्रेम में मलाल नहीं होना चाहिए, मगर तुम्हारे चले जाने का कारण नहीं ढूँढ पाना, मलाल को स्वत: निमंत्रण दे देता है मेरे मन के आँगन पर. ये मलाल रोज़ मेरे मन के आँगन पर तुम्हारी गैरमौजूदगी को मनाता हो जैसे, हर रात आँगन की मिटटी लाल होती रहती है. शायद फिर कोई ज़ख़्म फूट आया हो, शायद फिर कोई दिन याद आ गया हो. बीता वक्त बादल बन कर ही आता है और जब भी बारिश होती है तो मन की मिट्टी से तुम्हारी खुशबू आने लगती है, सोंधी-सोंधी सी, जैसे तुमसे भींग कर आई हो.
उस दिन भी तो बारिश हो रही थी, सुबह से शाम तक कितना इंतज़ार किया था कि शाम को तो साथ रहेंगे. मगर फिर तो तब हद ही हो गई थी, जब हमने ‘लव आज कल’ की ४ टिकटें ले ली थी, जिसमें एक श्यामली, दूसरा गिन्नी का, तीसरे व चौथे में मेरा तुम्हारा नाम लिखा गया था, हैं न? और तुम तब भी नदारद ही थे. फिल्म के शुरूआती सीन को देखते वक्त मन में बस यही हलचल मची हुई थी कि ये सीन तुम्हारे साथ देखना न नसीब हुआ. खैर तुम २० मिनट के बाद आ गए थे और तुम्हें लेने भी मैं ही गई थी. कायदे से तो श्यामली को तुम्हें लेने जाना था, मगर पता नहीं कैसे उसने मुझे तुम्हारा टिकट पकड़ा दिया और कहा कि उसे ले आओगी? मैंने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया था, अब सोचती हूँ तो लगता है कि कहीं श्यामली इस बात को गौर तो नहीं कर ली थी न?
मैं आज भी सोचती हूँ की उस वक्त मेरे मन में क्या था? जिसे जानने के लिए मैं वहाँ हॉल के बाहर तुम्हारा इंतज़ार करने लगी थी. तुम्हे सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए देखना और फिर मन के चोर को तुम पकड़ न लो इसलिए उतना ठीक से भी नहीं देखना कितना कष्टप्रद रहा होगा न मेरे लिए उस पल!
तुम जब सीढ़ियों से चढ़ते वक्त मुझे ऊपर से नीचे देख रहे थे, उससे तो मुझे गुस्सा आना चहिये था न, फिर वो कौन-सा जादू था, जिसके बिखरने पर तारों के छिटकने का अहसास हो रहा था और उन तारों में सबसे दमकता हुआ चेहरा तुम्हारा क्यूँ दिख रहा था? मुझे इतना समझने का मौका भी तो नहीं दिए थे तुम. आते ही मुझे जोर से एक चिकोटी काटी थी मेरे कमर पर और मैं तुम्हें डांटने के बजाय घबरा कर इधर-उधर देखने लगी थी कि और किसी ने तो नहीं देखा न? तुम फिर कानों में ‘मोटी कहीं –की’ घोलने लगे थे.
“कितना खाती है? देख, मेरे हाथ में तेरी चर्बी आ जाती है” – मुझे उस समय भी कुछ कहते न बना था. तुम ऐसा ही करते थे, हर काम डाँट वाला ही करते थे, मगर फिर भी बच जाते थे.
“अच्छा! सीटिंग अरेंजमेंट क्या है?”
“श्यामली, गिन्नी मैं और तुम! वैसे तुम अपनी और मेरी सीट बदल भी सकते हो. जैसे तुम्हे ठीक लगे.”- मैं तुम्हें यह सब क्यूँ बता रही थी? तुम सच में हर बात मनवा लेते थे.
“गुड! तब मैं गिन्नी के बगल में बैठूँगा. एक बात बताओ कैसी है वो?” – और तुम मेरा चेहरा देखने लगे थे या पढ़ने लगे थे.
‘अब मिल के ही जान लेना’- और मैं तुम्हें तुम्हारें आधे भींगे बालों को सहलाने की इच्छा करने लगी, सिर्फ मन-ही-मन में. लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि तुम सच में गिन्नी के बगल बैठ जाओगे. सच बताऊँ तो मुझे मन कर रहा था कि तुम्हें सीट से उठा कर सैफ के पास फेंक दूँ.
फिर तब मन ने कहा की क्यूँ ऐसा तू करेगी? तू कौन है और ये कौन है तेरा. गिन के ही मुलाकातें हुई , उसपे इतना हक कैसे कोई तुमपे जमाएं.
कुछ देर तक तो मैं मूवी ही देखने लगी, इस बात को दरकिनार करके कि तुम गिन्नी से ज्यादा बात कर रहे थे और मुझसे बिलकुल भी नहीं. तो फिर क्यूँ कहा था कि तुम्हें भी मेरे साथ ही वो मूवी देखने का मन था. इधर से बगलवाला भी इतना परेशां कर रहा था कि मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था. इसे मेरी इतनी भी फिकर नहीं कि मुझे उस बगलवाले के अत्याचार से बचाएँ. पर नहीं, जनाब का तो ध्यान ही कहीं और था. अच्छा हुआ जो इंटरवल हो गया. उसके बाद मेरे दिखाने की बारी थी ना. मैं भी हमेशा अच्छे वक्त का ही इंतज़ार किया करती थी. इंटरवल के बाद मैं जब श्यामली के सीट में बैठ गयी, तब तुम्हारा चेहरा देखने लायक था. तुमको लगा कि ये क्या हो गया? तुम्हारा तमतमाया चेहरा सब बयां कर रहा था. और मुझे भी बहुत अच्छा लग रहा था कि रहो अब! गिन्नी के पास और साथ में श्यामली के साथ भी - एक के साथ एक फ्री!
“ मैं १५ मिनट में वापस जा रहा हूँ’- तुम्हारा एस एम एस पढ़कर मेरी तो जान ही निकल गयी कि ये मैंने क्या कर दिया.
“नहीं मोमो, प्लीज़ मत जाओ. सॉरी L”
“मैं कुछ नहीं जानता, तुम मेंरे बगल में क्यूँ नहीं हो. मैं मूवी तुम्हारे साथ देखने आया था. मैं जा रहा हूँ.”
“तुम्हें गिन्नी के पास बैठना था न, तो बैठो न आराम से.” यह मेरा जवाब था उस समय, जिसमें मेरी सारी चिढ़न समाहित थी. फिर तिरछी नज़रों से तुम्हें देखा भी था, तुम भी मुझे देख रहे थे, शायद मुझसे भी ज्यादा गुस्सा आया हो तुम्हें.
एक पल का ही अंतराल रहा होगा तुमसे नज़रें मिलाने के बाद जब मुझे लगा कि मेरा यह करना मेरे लिए ही दुश्वार-सा लगने लगा था. तब समझ में आने लगा था कि मुझे तुम्हारे बगल में ही बैठना ज्यादा अच्छा लगता, भले ही तुम्हारा ध्यान कहीं और क्यों न हो? उसके बाद की घड़ियाँ मूवी के खतम होने तक मैंने कैसे बिताई या तो मैं समझ सकती थी या नहीं तो तुम.
वैसे मूवी अच्छी थी ना... पता नहीं क्यूँ शुरू से अंत तक मैं मूवी में तुम्हें और अपने को ही देख पर रही थी. तुम भी शायद!... शायद इसलिए कि तुम कभी बताते नहीं हो और मुझे खुद ही जानना पड़ता है.
मैं यक़ीनन तुम्हें उतना तो नहीं ही जान पाई थी कि कोई भी लड़की तुम्हारे प्यार में पागल हो जाये. मगर मैं थी, यह मुझे तब पक्का लगने लगा था.
मूवी के बाद गिन्नी और श्यामली के खातिर हम शॉपर स्टॉप में भी गए, जहाँ न तुम्हें कुछ देखना था और न मुझे कुछ लेना था. बस मैं चाह रही थी कि कब श्यामली सलवार सूट देखने में व्यस्त हो जाये और मुझे तुमसे बात करने का मौका मिले. मगर श्यामली को भी तुमसे ही पसंद करवाना था. वो तो मैंने ही उसे कहा कि “उस सेक्शन में कुछ अच्छे कलेक्शन है, उसे देख आओ”. पता नहीं, तुम मेरी इस चालाकी को कहीं भांप तो नहीं गए थे न. जानो तो जानो, मेरी बला से! मुझे तुमसे उस समय बात करना था, तो करना था.
“गुस्सा हो?”
“किस बात के लिए?”—तुम्हारा यही उत्तर होगा जो मुझे पहले से ही पता था.
“सॉरी बाबा! आज के बाद से ऐसा फिर कभी नहीं करेगे.”
“आई विल किल यु, इफ यू एवर डू इट अगेन.”
“सॉरी बोला न! अबसे नहीं करेगे.”—और फिर हम पता नहीं किन बातों में खो गए कि याद ही नहीं रहा हम थोड़ी देर पहले गुस्सा थे एक दूसरे से.
एक बात तो अब भी मानती हूँ कि तुम्हारा गुस्सा वाला चेहरा देख के मुझे लगता है कि तुम कभी भी माननेवाले नहीं, मगर फिर भी दो मिनट में मान जाते थे.
लेकिन मुझे फिर तब भी गुस्सा आया था जब तुम गिन्नी के साथ “हैंग ओवर “ में काउंटर गए थे. क्या तुम्हें ये पूछना जरूरी था कि “कौन जायेगा मेरे साथ?” सीधे – सीधे मुझे नहीं कह सकते थे कि चलो मेरे साथ. और तो और बगल टेबल वाला को भी तभी ही मस्ती सूझ रही थी. जितने देर तुम काउंटर में थे , उतने देर से उस सड़े –से मोटू को झेलना पड़ा था.
उसके बाद भी प्लेट शेयर किया था तुमने गिन्नी के साथ. लेकिन इस बार मैं और गुस्सा नहीं कर सकती थी. अभी पिछले का ही असर काफी खतरनाक था.
फिर तुम्हें अपने कैंट भी तो जाना था. और तुम जल्दी-जल्दी में चले गए. मुझे अब भी याद है कि श्यामली जल्दी में थी और मुझे और गिन्नी को भी जल्दी चलने को कह आगे बढ़ गयी थी. तब तक तुम स्टैंड में ही थे और अपनी बाईक निकाल रहे थे. मुझे मन था कि तुम्हें दूर तक जाता हुआ देख लूँ, फिर चलूँ. मगर श्यामली और गिन्नी के पीछे-पीछे हो ली. बहुत दूर जाने के बाद मन किया कि पीछे मुड़ कर देखूं कि तुम कहाँ तक चले गए होगे? इसके लिए भी मैं धीरे-से अपनी दोनों सहेलियों से थोड़ा पीछे होकर मुड़कर देखी थी. तुम बाईक में बैठे जैसे मेरे मुड़ने का इंतज़ार कर रहे थे. मेरा वो धीरे-से हाथ हिला के उस रात के लिए विदा कहना और फिर तुम्हारा हेलमेट लगा के मुड़ जाना, कितना रूमानी –सा लगता है, अब भी. ये मीठी यादें अब भी इतनी मीठी है कि इनमें जब तब मेरे मन के चींटे लग जाते है. तुम क्या अब भी इस तरह मेरा इंतज़ार करते हो, मेरे पीछे मुड़ने का. नहीं न... मैं तो अक्सर सूनी राहों में अब भी ठिठक-सी जाती हूँ, कहीं तुम रुके तो नहीं रह गए न, और मन मुड़ कर दूर – दूर तक तुम्हें तलाशने लगता है.
रुक गए है कदम वहीँ, मैं बस आगे की तरफ चलती रही....
लौट गया तेरा चेहरा भी, बस नज़र ही मेरी तुझपे जमी रही....