Sunday, June 6, 2010

HaPpY bIrThDaY mOmO!!!!!



कैसे कहूँ तुमसे कि मुझे भी मन है,
औरों की तरह तुम्हें ढेर सारी
शुभकामनाएं देने का,
तुम्हारे साथ तुम्हारी हर ख़ुशी का
इक छोटा-सा हिस्सा बन जाने का.

"तुम भी बुढ्ढे हो गए अब!"-
यह कह के तुम्हें चिढ़ाने का,
तुम्हारे dracula जैसे दाँतों को
अपनी शरारतों से चमकाने का.

ढेर सारी मोमबत्तियों के बीच
केक की जगह अपना दिल सजाने का,
और तुम्हारे हाथों कट के तुम्हारे मुख
से होते हुए तुम्हारे दिल में घर कर जाने का.

कैसे कहूँ तुमसे कि मुझे भी मन है,
औरों की तरह तुम्हारे संग
तुम्हारा जन्मदिन मनाने का,
और भेंट-स्वरुप तुम्हें चुपके-से एक
potassium-iodine-sulphur-sulphur
तुम्हारे मस्तक में दे जाने का.

Monday, May 24, 2010

जीवन-माला

मोती की भाँति वो सारे पल,
बिताए थे जो तेरे संग कल;
समय के हाथों पिरोते चले गए,
मेरी यादों के धागों में जुड़ते गए.

कुछ पल फिर भी अधूरे-से रह ही गए तो
कुछ की चमक समय के साथ धुलती गई;
और कहीं-कहीं से तो मेरी यादों के धागों में
जाने कैसी और कितनी-ही गाँठें पड़ती गई.

इसलिए,जीवन मेरा इन मोतियों की
सुन्दर माला तो बन न सकी;
पर कोई दुःख भी नहीं,जो मैं
इसे कभी पहन न सकी.

मैंने अब भी इसे वैसे ही
संभाले रखा है;
अपने मन की झरोखे पर
बीचोंबीच टाँगे रखा है.

कि तुम्हें छूकर कोई हवा
कभी तो इस तरफ आएगी;
तुम्हारे छुअन से मेरी ये जीवन-माला
शायद फिर-से निखर जाएगी.

Friday, May 21, 2010

अब तुम भी आ जाओ !

जीवन की तपिश में जलते हुए
तुम्हारी झलक के दो बूँद की प्यासी,
तरसती मेरी आँखें जा टिकी है,
मेरे होस्टल के सामने उसी पेड़ के नीचे,
जहाँ कभी तुमने मेरा इंतज़ार किया था.
यही सपना देखा था न,तुमने और मैंने भी.

पता है, मानसून अब आनेवाला है,
आज तो बूँदा-बांदी भी हुई है.
और अभी से मेरा मन
होस्टल के गेट पे पहरेदारी करने लगा है;
तुम्हारा रास्ता देखने के लिए तो
मेरे साथ-साथ उस पेड़ के पत्तों में
छोटी-छोटी बूँदें भी, जो तुम पर ही
बरसने के लिए जम रही है,व्याकुल होने लगे है.

देखो आधा सपना तो सच होने लगा है न,
अब तुम भी आ जाओ!
इस सपने को पूरा करने के लिए.

Wednesday, April 21, 2010

क्या जरूरी था?

सोचती हूँ, क्या जरूरी था?
तुम्हारा मेरे जीवन में इस तरह आना,
आके फिर न वापस आने के लिए लौट जाना,
और पीछे ढेर सारी मुश्किलों से मुझे
अकेले लड़ते रहने के लिए छोड़ जाना.

सोचती हूँ, क्या जरूरी था?
मुझे इस तरह के सपने देखते रहना,
हर समय हरे रंग का चश्मा पहने रहना,
और सूरज को दूर क्षितिज में भेज
उसकी गहराई को नापते रहना.

सोचती हूँ, क्या जरूरी था?
तुम्हारी हर बातों को बार-बार दोहराते रहना,
तकलीफ को भी और तकलीफ देकर मुस्कुराना,
और इस तरह तुम्हें सदा के लिए,
स्वयं में आत्मसात कर लेना.

सोचती हूँ, क्या जरूरी था?
तुम्हारे ही जीवन का एक हिस्सा बनना,
तुम्हारी मुस्कुराहट, जरूरत, हर चीज़ का उत्तर बनना,
और तुम्हारे ही हाथों से तुमसे
इस तरह अलग होना, यह स्वीकारना.

हाँ, जरूरी था !
तुम्हारा आना, फिर जाना, अहसासों का घटना-बढ़ना,
दुनिया को तुम्हारे अनुसार चलने के लिए मेरा रुकना,
तुम और तुमसे जुड़े लोगों की ख़ुशी बने रहना,
मेरी हाथों की ह़र लकीरों का मतलब सच होना,
और इन सबके लिए मेरा टूटना.

बहुत जरूरी था.....

Thursday, April 15, 2010

क्यूँ बंद नहीं होता?

अब मैं भी दिमाग से काम
लेने लगी हूँ;
सोचती हूँ, क्यूँ तुम्हें इस तरह
याद करने में लगी हुई हूँ मैं?

तुम चले गए हो, तो इन
सबको भी चले जाना चाहिए;
क्यूँ अब भी इन पलों से, भींगी पलकों व
तुम्हारी बातों से सजा करती हूँ मैं?

यथार्थ में तो तुम मेरे लिए
कभी थे ही नहीं;
फिर भी तुम्हारे साथ जैसे जी रही हूँ मैं,
ये कैसे सपने में खोई हुई हूँ मैं?

हाँ, अब इस दरवाजे को बंद कर देना चाहिए,
जिससे होके तुम कभी आये थे;
तुम्हें यकीं न हो शायद, मगर जिस पल से तुम चले गए,
तबसे इसकी कुण्डी बंद करने में लगी हुई हूँ मैं.

फिर क्यूँ बंद नहीं होता? तो याद आता है कि
तुम्हारे मोज़े का एक जोड़ा व एकाध कपडे,
जो तुमने धोने के लिए पानी में भिगोये थे;
मुझे उनको धोकर सुखाना है पहले,
शायद इसी सोच में अब तक पड़ी हूँ मैं.

Monday, April 12, 2010


तुम्हारे आने की बातें अब मेरी खिड़की पर भी होने लगी है.....
इन पंछियों की चहकने की वज़ह भी तुमसे शुरू होने लगी है.....
आ जाओ कि न चाहते हुए भी तुम इन लोगों के बीच बँटने लगे हो,
मेरे इंतजार की घड़ियों में भी अब सबकी नज़र पड़ने लगी है.....

Friday, April 9, 2010

मेरे पास वक़्त नहीं है.....

मेरे पास वक़्त नहीं है,
अब कुछ भी सोचने के लिए
अपने लिए अब और कुछ करने के लिए.

मेरे पास वक़्त नहीं है,
अब सबकी बातें सुनने व समझने के लिए
उनकी जगह स्वयं को रख परखने-तौलने के लिए.

मेरे पास वक़्त नहीं है,
तुम्हारे मन को अब और पढ़ने के लिए
तुम्हारे लिए अंतहीन प्रतीक्षा के लिए भी.

हाँ, क्यूँकि कल रात मैंने वक़्त को
आँसुओं के कम्बल में लपेट कर
उसके हर कतरे को जला दिया है.

और बचे-खुचे, जो राख बन उड़-फिर रहे है,
उन पर अपनी मरी हुई इच्छाओं की
शोक-माला ओढ़ा दी है.

ताकि कोई भी देखे तो यही कहे कि-
बड़ा ही भला था ये वक़्त मगर
किस्मत की मार इसको भी लग गयी.
जिन आँखों में जनमा, वहीं वक़्त से पहले
आज इसकी मौत हो गयी.

इसलिए मेरे पास आज वक़्त नहीं है,
यादें है मगर कोई जिंदा वक़्त नहीं है.....

Tuesday, January 19, 2010

मुझे इतना प्यार न करे.....

हर पल, हर क्षण
तुम्हारी याद से मैं
लड़ती रहती हूँ;
कई बार विनती भी
कर चुकी हूँ मैं.

कि मुझे नहीं सुनना
अब तुम्हारी बातें;
तंग आ चुकी हूँ मैं
बार-बार यही दोहराते.

हर बार तुम मुस्काते-से
नज़र आते हो;
हर बार तुम्हारी महक
फ़ैल सी जाती है जैसे.

हर बार गालों को थपका
चुपके-से तुम भाग जाते हो;
हर बार तुम्हारी आह्ट पर
मैं खिल से जाती हूँ जैसे.

नहीं, मुझे और नहीं
लुका-छिपी तुमसे है खेलना;
नहीं, मुझे और नहीं
सपने में तुम्हें ही है देखना.

इसलिए, कह दो अपनी यादों से
मुझे इतना प्यार न करे,
जितना तुम मुझे
कभी कर न सके.

Thursday, December 24, 2009

"मोमो" --- a sweet friend of mine.... n I call him by this name only....



कुछ उसके मिजाज़ गरम-से है,
कुछ उसके जज्बात नरम-से है;

बातें उसकी इतनी तीखी कि
सबको रुला जाती है,
फिर कैसी चेहरे में ये शोखी कि
सबको लुभा जाती है;

कुछ शरारत की मीठी चटनी में
लिपटा-हुआ सा है,
पर अंदर जाने कितने कड़वे अहसासों में
सिमटा-हुआ सा है;

ज़िन्दगी के भाप में कब-से
पकता रहा है,
वक़्त की आंच में लगभग
उबलता रहा है;

फिर भी रहता हर बदलते पलों में
वो इक जैसा-ही,
"मोमो" सबका ही प्यारा ओर
पसंदीदा भी.

Note: Momo(Steamed dumpling) is a tibetan/chinese food.

Sunday, December 20, 2009

कब तक?????

कब तक तुम मुझसे बातें करोगे,
कब तक मैं फोन को घूरा करुँगी;

कब तक तुम मेरी हर खबर लेते रहोगे,
कब तक मैं तुमसे सारा संसार बुना करुँगी;

कब तक तुम अपनी उलझन में मुझे बाँधा करोगे,
कब तक मैं इस घुटन से बाहर निकलूँगी;

कब तक तुम मुझको इतना सताते रहोगे,
कब तक मैं तुम्हें याद कर लिखती रहूँगी;

कब तक मेरी बात अपने दोस्त तक भेजा करोगे,
कब तक तुम्हारी कविता मैं उसे सुनाया करुँगी;

कब तक पन्नों पर तुम पर शक़ की जगह लेते रहोगे,
कब तक तुमपे झूठ की चादर डाल दिया करुँगी;

कब तक तुम मुझे गुमराह किया करोगे,
कब तक और मैं तुम्हारी राह तका करुँगी;

कब तक तुम मौन बन सब बोल जाया करोगे,
कब तक मैं इतना कह के भी चुप रहा करुँगी;

कब तक बोलो कब तक?
कब तक तुम मेरा मन रखा करोगे,
कब तक मैं भी अपना मन तुम्हारे लिए रखा करुँगी.....

Wednesday, December 16, 2009

इक दिन ऐसा हो-

इक दिन ऐसा हो-
जब मैं न करूँ
कोई भी सवाल तुमसे,
तुम भी जवाब देना
भुल जाना.

इक दिन ऐसा हो-
जब हम बन जाए
फिर-से अनजाने,
और कोशिश भी न करे
इक-दूसरे को जानना.

इक दिन ऐसा हो-
जब हँसना न पड़े
झूठ-मूठ का तुम्हें,
और न ही उत्तरस्वरूप
मुझे भी पड़े मुस्कुराना.

इक दिन ऐसा हो-
जब तुम तोड़ जाओ
हमेशा के लिए दिल मेरा,
और मैं भी न चाहूँ
दोबारा खुद को जोड़ना.

इक दिन ऐसा हो-
जब मुझको हिचकी
आए भी तो,
दूर कहीं तुम भी
न खाँसना.

इक दिन ऐसा हो-
जब तुम्हारे दर्द पर
तुम ही सिर्फ रोना,
और मेरे आँसू मेरे ही
आँखों से चाहे निकलना.

इक दिन ऐसा हो-
जब वक़्त ही न मिले
कुछ सोचने को,
और मैं भूल जाऊँ
इन पन्नों को बेवज़ह नम करना.

Thursday, December 3, 2009

तब मन को मसोसा है मैंने.....

जाने क्या मैं ढूँढ़ती,
मैं सबकी आँखों में.
क्या सोचते होगे लोग
मेरे बारे में.

शायद कुछ और ही
समझने को मिले.
इस जीवनरूपी पहेली का हल
किसी और से ही सही,
मगर कुछ तो मिले.

हर दफ़ा मैंने उनको
सुना; वो भी सुना,
जो नहीं थी किसी ने कही.
हर दफ़ा भीड़ में मैं जब भी चली;
औरों की तरह अकेले ही बढ़ी.

लोगों की बातें सुनते हुए
कई बार गौर किया है मैंने;
मैंने ऐसा क्यूँ नहीं सोचा?--
सोच के तब मन को मसोसा है मैंने.

Tuesday, December 1, 2009

ये मन भी न कितना अजीब है!

ये मन भी न कितना अजीब है!

हर पल को संजो-संजो कर
रखने की कोशिश करता है;
मगर कुछ पल बिखर जाए,
तो ही अच्छा रहता है.

जब ऐसे कई पल
मन में जमने लगते है;
तब टीस-टीस करती
हजारों ख्वाहिशें चुभने लगते है.

ये मन भी न कितना अजीब है!

जब देखो चुम्बक बन जाता है;
जिसे भूलने की कोशिश करती हूँ,
उसे ही कस कर पकड़ने लगता है.

कुछ यादें, नुकीले धार वाले
लोहे की कील की तरह होती है;
और मन इन कीलों की तरफ
बरबस-ही आकर्षित होने लगता है.

ये मन भी न कितना अजीब है!.

Friday, November 27, 2009

आज फिर एक बार २६/११ था.....



आज फिर एक बार २६/११ था;
आज फिर एक इमारत ढही है,
ताज न सही, मन ही था मेरा.
आज फिर मरे है कई जज्बात,
इस मलबे की ढेर में अब भी
कई तड़प रहे होगे.

आज उसका फोन आया था,
साथ में न ख़तम होनेवाली
उसकी चुप्पी.
दोनों का बड़ा गहरा
असर पड़ा है.
मेरे मन में कई क्षत-विक्षत
सपने, कुछ अधमरे-से भी
अब भी वक़्त की गिरफ्त में
लाचारगी-से मौत की राह पड़े है.

अंतर बस यही है कि,
इस अंदरूनी नुकसान से
बाहरी जीवन पर
कोई असर नहीं दीखता है.

अंतर बस यही है कि
इसका मातम मनानेवाला
और कोई भी नहीं,
आज सिर्फ मैं ही रोई हूँ.......

Thursday, November 26, 2009

झूठ का चश्मा.....

मेरे पास एक चश्मा था;
इस दुनिया को देखने के लिए,
झूठ के रंग का.
ऐसा भी नहीं है कि बिन चश्मे के
मैं देख नहीं पाती.
पर नंगी आँखों से दुनिया
का नंगा सच देख पाना
मुझमें अब इतनी हिम्मत नहीं.

अब आँखें है तो देखेगी ही ना,
तो क्यूँ न अच्छा-अच्छा ही देखूँ?
बहुत अच्छा भी लगता है,
कभी-कभी मुझे इस जहाँ को
बनानेवाले हाथों पे बेहद प्यार भी आता है.

मगर सच तो यही है कि मैंने
इन हाथों से हर बार थप्पड़ ही खाए है.
सच में! तुम्हारे हाथ बहुत कठोर है,
इतने कि इनके जकड़न में
मोम की भांति पिघल जाते है सब;
और तुम्हारी ही इच्छानुसार
ढल जाते है अपनी अपनी जिंदगियों में.

हाँ! तुम्हारी मर्ज़ी बहुत चलती है,
देखो न, तुमने तो अब
मेरा ये चश्मा भी तोड़ दिया.
सिर्फ इसीलिए न कि मैं
दुनिया को वैसी ही देखूँ,
जैसी वो है.

इस बार तुम्हारे तोड़े गए चश्मे के टुकड़े
मेरी आँखों में बहुत गहरे चुभे है.
इतने कि अब मुझे कुछ भी नहीं दीखता.
तुम्हारी ये दुनिया भी नहीं, तुम भी नहीं,
मैं भी नहीं और वो भी नहीं......

Saturday, November 21, 2009

तुम्हारी झूठ की दास्तान

तुम अकसर मुझसे
झूठ बोल जाया करते हो,
शायद यह सोच के कि
मैं बुरा न मान लूँ.
पर तुम्हारी ये जो
दो आँखें हैं ना,
मुझे इनको पढ़ना आता है.
ये अकसर तुम्हारी
झूठ की दास्तान
मुझे सुनाया करती है.
कभी-कभी तो तुम्हारी
जी-भर के शिकायत भी करती है.
क्योंकि तुम इनसे भी
झूठ बोला करते हो न?

Thursday, October 1, 2009

अकेली हूँ, अलग हूँ, मगर मजबूर नहीं...

अकेली हूँ, अलग हूँ,
मगर मजबूर नहीं;
मेरा जब जी करता है
तुम्हें याद कर लेती हूँ.
बंद आंखों से तुम्हारी तपिश,
मैं जब चाहूँ, छू सकती हूँ.

मुझे सपने आते है, तुम्हारे वाले ही,
मेरे ही द्वारा बनाये हुए;
किसी और के सपने मैं जीती नहीं.
मुझे पता है मैं
तुम्हें क्यूँ याद करती हूँ;
तुम्हारी तरह,
दूसरों के कहे अनुसार मैं तुम्हें
भूलने की कोशिश कभी करती नहीं.

तुम कैसे मेरे करीब
आ गए इतने, यह भी
मैं तुम्हें बता सकती हूँ;
अब तो मैं भी
जानने लगी हूँ कि
तुमसे दूर जाकर
खुश रहना,
मेरे जीवन का
सबसे बड़ा झूठ कहलायेगा.

पर जो सच आज
मैं लिख रही हूँ,
क्या कभी भी तू
इसे पढ़ पायेगा?

Saturday, September 5, 2009

काँच की कटोरी.....

आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी;
मेरी सबसे प्यारी
काँच की कटोरी.

पीछे देखती हूँ तो बस
एक ही किस्सा
जी को झकझोरती है,
जब काँच कोई तोड़ा हो.

आज माँ बहुत याद आ रही है;
याद है अब भी मुझे जब
फ्रिज से रूह-अफ्ज़ा की बोतल
निकालते वक़्त मैं
संभाल नहीं पाई थी; सब
टूट के बिखर गए थे
मेरे चारों तरफ और
शर्बत भी पसर गए थे
मन में भय की तरह.

माँ की चपत पहली बार
महसूस की थी, बंद आँखों से
वो भी चपत खाने से पहले.

माँ दौड़ के आई थी,
मुझे गोद में उठा के
मेरे नंगे पाँवों को
अपने नंगे हाथों से झाड़ती हुई
और वो भी नंगे पाँव.

याद है अब भी मुझे
माँ का आँचल,
जिसमें शर्बत और काँच
दोनों लगे पड़े थे.

याद है मुझे, तब से
फिर कभी मैंने कोई
भी काँच नहीं टूटने दिए;
ऐसे सहेज कर रखती गई कि
फिर कहीं चुभ न जाये
मेरी माँ को.

आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी,
इस बार मगर जान-बूझ के.

बचपन के उस डर को
निकाल के कि, शायद
आज वो आँचल बहुत दूर है,
इस विश्वास के साथ,
या आज इस मन के
काँच के टूटने की आवाज़
माँ तक नहीं पहुँचेगी
इस विश्वास के साथ.

रोज़-रोज़ दरकने की
सहमी-सी आवाज़ सुनते हुए
थक चुकी हूँ मैं,
सो दे मारा ज़मीन पर
प्यारी कांच की कटोरी को.

इस बार पूरी तरह से
टूटने की आवाज़ आई थी,
कुछ समझ में आया था
अच्छी तरह से, पहली बार.

हाँ! आज पहली बार तोड़ी है,
मैंने काँच की कटोरी;
मेरी सबसे प्यारी
काँच की कटोरी.